आज लहराती मस्ती इन हवाओं में है...
नई सी एक अदा इस अंगड़ाई में है...
ज़ुल्फ़ जो रोज़ ही गिरती थी चेहरे पर
आज इस ज़ुल्फ़ पे शाम की गहराई सी है...
नज़रें भी तो रोज़ ही झुकती और उठती थी यूँ ही...
आज अनकहे सवालों से कुछ घबरायी सी हैं...
बातें भी महफ़िल में अकसर हुआ करती थी...
आज दबे होठों को छूने पे कम्प्कपाई सी हैं...
झूम उठती थी बारिश की बूंदों को देख जो नज़र...
आज सीली सीली सी कहानी इस आंख में ही है...
देखते थे चमकते तारे आसमान में यूँ ही...
टूटते तारे का उन्हें आज इंतज़ार सा ही है...
वही समां था, वही समां है...
पर हर लम्हा अब लगता राज़दार सा ही है...
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