Tuesday, December 7, 2010


ज़िक्र किये मुददत हो गयी और ख्याल भी पुराना है
क्यों ख्यालों में बसे हो इन फासलों के बाद
सात समुन्दर दूर हो,और कमी सी है
इन ढूँढती आँखों में फिर नमी सी है
कहा था,इतना भी हक न रखना हम पर
की एक आह पर तुम्हारी हम दुआ कर बैठें
सोचा था वक़्त ने पत्थर कर दिया होगा
फिर क्यों एक सदा ने तुम्हारी मोम कर दिया हमको
पतझड़ के वो फूल आज भी कहीं उन बिखरे हुए पन्नों को छू रहे हैं कहीं
उन सूखे हुए फूलों से आज भी महक आ रही है कहीं
उन बातों में कसक थी जो कल
वही असर उन यादों में आज भी है...

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