जब अपने आप को और अपने ख्यालों को तनहा पाया...
वही चेहरा, हमसाया बन सामने आया...
खो जाना चाहा जब गहरी तनहाइयों में...
उसकी यादों के मेले में खुदको को घिरा पाया...
ख़ामोशी की चाह में जा बैठे थे हम अकेले...
अकेले होकर भी, उस से जुदा हो पाना, नामुमकिन पाया...
हाथ बढाकर जब उन मुस्कुराते लबों को छूना चाहा...
हवा में महक और खुद में दौड़ता जूनून पाया...
भूल गए थे शायद हम उसकी बातों का असर...
भूल जाने के बाद भी अपने वजूद में उसका वजूद पाया...
हो सकता था,उन् लम्हों से जुड़ा था आज भी ये सफ़र...
रास्ता खो जाने के बाद भी, मंजिल पी उसको खड़ा पाया...
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